समझ ना सका मैं तेरे दर पर लगी कतारों से,
रोशनी की उम्मीद कर बैठा गर्दिशमय सितारों से।
हमसफर ही तंग दिल मिला था मुझको,
किस कदर फरीयाद करता मैं इन बहारों से।
कौन रूकेगा इस सरनंगू शजर के नीचे,
जो खुद टिका हो बेजान इन सहारों से।
आंखों के आब को अजान देते रहते हैं जो,
लम्हा-लम्हा मांगता रहा समर इन रेगजारों से।
नामो-निशां भी मिटा चुका हूं तेरा इस दिल से,
तो किस कदर गुजरू तेरे दर के रहगुजारों से।
मेरी चाहत तो खला में खो चुकी है अब,
वक्त गुजर रहा है ”हर्ष” इन शुमारों से।
तुम्हारी खुशी का सीना किसने चीरा दिलावर,
कौन चीखता है तेरे जुल्मतों भरे हिसारों से।
2 टिप्पणियां:
kya baat hai harsh jee, mazaa aa gaya. bahut achchha likha hai aap ne
badhai
nice one!
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